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स्वा॒यु॒धस्य॑ ते स॒तो भुव॑नस्य पते व॒यम् । इन्दो॑ सखि॒त्वमु॑श्मसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svāyudhasya te sato bhuvanasya pate vayam | indo sakhitvam uśmasi ||

पद पाठ

सु॒ऽआ॒यु॒धस्य॑ । ते॒ । स॒तः । भुव॑नस्य । प॒ते॒ । व॒यम् । इन्दो॒ इति॑ । स॒खि॒ऽत्वम् । उ॒श्म॒सि॒ ॥ ९.३१.६

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:31» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:6 | मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भुवनस्य पते) हे सम्पूर्ण भुवनों के पति परमात्मन् ! (ते) तुम्हारी (स्वायुधस्य सतः) जीवित जागृत शक्ति से (इन्दो) हे परमैश्वर्य्यस्वरूप ! हम लोग तुम्हारे (सखित्वम्) मैत्रीभाव को (उश्मसि) चाहते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के नियन्ता और निखिल ज्ञानों के अवगन्ता परमात्मा से जो लोग मैत्री करते हैं, वे लोग इस संसार में परमानन्द का लाभ करते हैं ॥इस अभेद सम्बन्ध का नाम उपनिषदों में ‘अहंग्रह’ उपासना है और इस उपासना का पद प्रतीकोपासना से बहुत ऊँचा है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “अहं वा त्वमसि भगवो देवते त्वं चाहमस्मि” हे भगवन् ! मैं तू और तू मेरा रूप है, इसमें कोई भेद नहीं। इस उपासना का नाम आध्यात्मिकोपासना है। इसको वेद अन्यत्र भी प्रतिपादन करता है, जैसा कि “यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः” और आधिदैविकोपासना वह कहलाती है, जिसमें सूर्य्यचन्द्रमादि में व्यापक समझ कर परमात्मा की उपासना की जाती है कि “य आदित्ये तिष्ठन् आदित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरम् “ जो आदित्य इस सूर्य्य में रहता है, जिसको सूर्य्य नहीं जानता और सूर्य्य जिसका शरीरस्थानी है, वह तुम्हारा अन्तर्यामी अमृतरूप ब्रह्म है।इसी को प्रतीकोपासन नाम से कहा जाता है अर्थात् “प्रतीक उपासनं प्रतीकोपासनम्” जो प्रतीक=सूर्य्य चन्द्रादिकों में व्यापक समझ कर ब्रह्म की उपासना की जाती है, उसका नाम प्रतीकोपासन है अथवा “प्रतीकेनोपासनं प्रतीकोपासनम्” जो प्रतीक के द्वारा उपासन किया जाता है, उसको भी प्रतीकोपासन कहते हैं। जैसा कि वेदमन्त्रों द्वारा ईश्वर का उपासन किया जाता है।और जो लोग “प्रतीकस्योपासनं प्रतीकोपासनम्” इस प्रकार षष्ठीसमास करके प्रतीक अर्थात् मूर्ति की उपासना सिद्ध करते हैं, वे वेदोपनिषदों के रहस्य को नहीं जानते, क्योंकि वेदों का तात्पर्य आध्यात्मिक आधिदैविक अर्थात् आत्मा में और सूर्य्यादि दिव्य वस्तुओं में व्यापक समझ कर ब्रह्मोपासन करने का है। मृण्मयी अथवा धातुमयी किसी मूर्ति का निर्माण करके उसकी पूजा करने का नहीं ॥तात्पर्य यह है कि वेदों के आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों प्रकार से अर्थ करने से भी आधुनिक मूर्तिपूजा सिद्ध नहीं होती ॥आधुनिक मूर्तियाँ, जो वैदिकधर्मी अर्थात् वेदों को सर्वोपरि प्रमाण माननेवाले आर्य्य लोग बनाते हैं अथवा यों कहो कि अपने आपको हिन्दू नाम से सम्बोधन करनेवाले बना लेते हैं, वे केवल बौद्धधर्मानुयायी लोगों का अनुकरण करके बनाते हैं ॥पुष्ट प्रमाण इसके लिये यह है कि वेदाभिमानी लोगों की कोई मूर्ति भी बुद्धमूर्तियों से प्राचीन नहीं पायी जाती, किन्तु सब अर्वाचीन हैं अर्थात् नवीन हैं ॥६॥यह ३१ वाँ सूक्त और २१ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भुवनस्य पते) हे सर्वजगदीश्वर परमात्मन् ! (ते) तव (स्वायुधस्य सतः) उत्तमतया शक्त्या (इन्दो) हे परमैश्वर्यरूप ! (वयम्) वयं भवता (सखित्वम्) सौहार्दं (उश्मसि) कामयामहे ॥६॥ इति एकत्रिंशत्तमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥